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मेजर साहब का सबसे बडा दुश्मन था वह। उसने मेजर साहब की रातों की निंद और दिनोँंका चैन सब छिन लिया था। देर रात तक उसी के आवाज के कारण वह अच्छी तरह सो भी नहीं सकते थे । दिनभर भी उसी की सोच उन की दिनचर्या को प्रभावित करती थी।

वैसे तो उतने कायर नहीं थे मेजर साहब। बडे-बडे युद्ध के मैदान में ढेर सारे दुश्मनों को हरा कर उनसे निजात पाना उन्हें कल जैसा लग रहा था। पर यह दुश्मन तो असल में बहुत खास था। और तो और यह दुश्मन उन्ही के यहां रहता था उन्ही के यहां खाता भी था। उनका फटेहाल कपडों का कारण भी वही था। उन की अनिद्रा, तनाव सभी उसी के कारण था। यहाँ तक कि घरमे उनकी बेगम भी उन्हे कोसने लगी थी। अब ऐसे नहीं चलेगा इस दुश्मन से निजात पाना ही पडेगा – सोचने लगे मेजर साहब।

दुश्मन से निजात पाने की तरकीबें सोचने लगे मेजर साहब। वन्डरल्याण्ड के शासक ने वहां के आम आदमी पर किया हुआ क्रुरता से भरपूर दमन से ले कर ह्यामलिन के लोगों ने अपने दुश्मनों से पाए निजात तक उनकी मन मस्तिष्क में घुमने लगे। मोहीत करने वाली धुन लगायत के अनेकन तरकीब सोचने लगे। वह तो सतयुग था और वैसी धुन भी काम करती पर अब की दुश्मन की बात ही कुछ और है। आखिर मेँ कुछ दृढ निश्चय करके हथियार खरीदने बाजार कि ओर निकल पडे मेजर साहब ।

“अब मेरी गिरफ्त में आ गया मेरा दुश्मन। अब तो मैं रातों को आराम से सो और दिनभर तनाव रहित रह सकता हूं।” चुहेदानी में फसा हुआ चुहे को देखते हुए कहने लगे मेजर साहब।

१६ दिसम्बर २०१३
रत्ननगर, सौराहाद्वार, चितवन
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