‘कुकडु कु!’ मुर्गा बाँग लगाकर लौटता हुआ मुर्गी को बोलने लगा, ‘देखा भाग्यवान! मेरे ही कारण इन सब लोगोँ के काम बनते हैँ। नीँद में मस्त इन मूर्खों को समय का महत्त्व का क्या पता।’
‘हाँ, हाँ तुम्हारे ही कारण यह सब चलता है। सुबह की थोडी सी झपकी भी लेने नहीं देते।’ मुर्गी गुस्से से झुँझलाई।
‘और क्या? और सुनती हो? सूरज भी मेरे बाँग लगाने से ही उगता है,’ मुर्गा गर्व से फुदकता हुआ बोला।
‘ज्यादा मत फुदको। लोगों के भोजन बनोगे, फिर पता चलेगा,’ मुर्गी उसको समझाने लगी।
साम होते ही जब मुर्गा मालिक ने उसे बन्द कर दिया, उसे मुर्गा मालिक पर बहुत गुस्सा आया और मुर्गी से बतियाने लगा – ‘सच में भाग्यवान। मुझे तो इन लोगों पे बहुत गुस्सा आता है। रोज सूरज ढलते ही हमें बन्द करके रखते हैँ। हम रात को खुली हवा का लुत्फ भी नहीं ले सकते।’ मुर्गा अपने मन की भडास निकालने लगा।
‘हर बात को गलत मत सोचो। ये हमारे लिए ही तो है। रातको बिल्ली, लोमडी, नेवले खुल्ले घुमते हैँ । उन से हमारी रखवाली कौन करेगा। दिनभर तो मस्त हो कर खुली हवा में फुदकते चलते हो। अपने बचाव के लिए इतना सा भी सहन नहीं कर सकते?’ मुर्गी फिर से उसे समझाने लगी।
‘इन लोगों को आज रात मैँ दिखा दूंगा कि मैं भी क्या चीज हूँ’ । मुर्गा दृढ़तापूर्वक बोला।
‘ऐसा वैसा मत सोचो, नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा?’ मुर्गी उसे सचेत करती रही। पर मुर्गे को कोई फर्क नहीं पड़ा। वह घमंड में भरा हुआ मन ही मन सोचने लगा कि मेरे बाँग लगाते ही लोगोँ को जागना, उठना व काम करना शुरू होता है। मेरे बाँग लगाने से तो सूरज भी उग जायेगा। उसके बाद मालिक मुझे खोल देगा। इस तरह सोचते सोचते वह आधी रात से ही लगातार बाँग लगाने लगा। पर न लोग जल्दी जगे, न सूरज जल्दी उगा। बहुत समय के बाद जब सूरज की लाली भोर को रंगीन करने लगी। लोगोँ में हल चल होने लगी। मालिक ने सुना था कि मुर्गा अगर बे वक़्त बाँगने लगे तो बहुत बडा अपशकुन होता है। मुर्गे के बे वक़्त बांग देने से वह नाराज़ था। इसी नाराजगी में वह बाड़े तक आया और मुर्गे को पक़ड लिया।
कुछ ही देर में मुर्गा लोगों की खाने की थाली के एक भाग में कटोरी के अन्दर पहुँच चुका था।
लघुकथा नि:सन्देह बस्तुपरक व
लघुकथा नि:सन्देह बस्तुपरक व मानव निर्मित दर्शन की प्रखरता की पैरवी करती है। “मानव निर्मित दर्शन” इसलिए क्यों की हम अपनी बात कहलवाने के लिए, पशु या मानव ईतर पात्रों को हम मानव सा ही सोचते हुए दिखलाते हैं। शायद यह हमारी जाती सर्वश्रेष्ठ होने का प्रमाण होगा, किन्तु यह जरुरी नहीं।
से, का, को, आदि संयोजक हिन्दी में अलग-थलग लिखे जाते हैं। आप की हिन्दी तारिफे काबिल है।
जी बहुत धन्यवाद। मैँ हिन्दी
जी बहुत धन्यवाद। मैँ हिन्दी सिख रहा हुँ। नेपाली भाषी होने के कारण यह सब हुअा होगा। अागे खयाल रखुँगा ।
इस लघुकथा पर जो भी अशुद्धियाँ थीं वह श्री अालोक कुमार सातपुते जी के सहयोग से थोडी सुधार हुइ है।