(एक भारतीय महिला माओवादीको कविता)
मैंने नहीं उतारी सलवार
रात भर थानेदार ने बैठा के रखा थाने में
फिर भी, मैंने नहीं उतारी सलवार ।
वो चीखा चिल्लाया, गला फाड़ा
पर मैंने भी कस के पकड़ रखा था नाड़ा
मैंने नहीं उतारी सलवार ।
चार दिन थाने में रही,
लटकी रही सिर पे तलवार,
पर मैंने नहीं उतारी सलवार ।
थाने से छूटी तो सीधे जंगल गयी,
वहाँ कामरेड थे, उनसे धरी गयी,
मैं अकेली, वो थे चार,
उन ने तार तार कर दी सलवार ।
थानेदार तो पराया था,
पर ये सब तो अपने थे
नक्सली आंदोलन को ले के,
क्या क्या देखे सपने थे,
सब सपने हुए तार तार,
जब अपने ही कामरेडों ने,
खींच के उतारी सलवार…!! ”
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