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सप्तरीके थारू संस्कृति : एक विश्लेषण

AbhitKumarChaudhary


खोला कताके ठण्ढा हावामे बहौत दिनसे कुदल चियै
टुटल नै छै हमर बनेलहा घर सदियौँसे बैसल चियै ।

आपन मातृभषा, आपन परम्परागत रीतिरिवाज, बेग्ले किसिमके सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक संरचना और लिखित या मौखिक इतिहास भेल जमा ५९ जाइत या समुदायके आदिवासी जनजाति उत्थान राष्ट्रिय प्रतिष्ठान ऐन २०५८ के परिच्छेद १ धारा २ के (क) बमोजिम आदिवासी जनजाति कैहके परिभाषित क्याल गेल छै । ओइ ५९ जाइत या समुदायमेसे थारूके आपने किसिमके अलगे ऐतिहासिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक पहचान छै जे सबसे पुरान मानल जाइछै ।

‘द लाइट अफ एसिया’ के नामसे संसारमे चिरपरिचित भगवान् गौतम बुद्धोके समयस पैहनेसे अखनतक पूरुव मेचीसे पक्षिम महाकालीतक लगभग सबटा जिल्लामे गमकौवा फूलनहाइत फुलेलहा थारूसब नेपालके सबसे बेसी उब्जैवाला भूमिमे निवास करैछे । उसब हिमालके कोखसे निकललहा बढ्का खोला या लदीके बढ्का माछ, काँखोर (गँगटो, कौछ आ डफगरहा घोँगही, डोका ख्याके आपन जीवन तन्दुरुस्त करने छै । तराईके चाइरकोस झाडीमे व्याप्त सबसे खतरनाक रोग मलेरियासे लडैत नेपालमे मात्रै नै, बल्की दुनियाँभैर आपन संस्कृति आ सभ्यताके दमगरहा ऐतिहासिक खमहाँ खडा कैरदेने छै । ई बातके विचार करैत दुई दशकसे बेसी समयतक रहलाहा बेलायती राजदूत ब्रेन हैगसन कहने छै जे थारू जाइत मलेरियाजखा भयानक रोगके पच्यानेने छै । लेकिन ई रोगके पचाबैके लेल कमसे कम तीन हजार वरिष लागल हेतै । थारूसब अखनोतक आपन बपौती सम्पत्तिके लात माइरके कतौ बसाइँ सरैले नै चाहैछै । उपरका बातसे ई पुष्टि हैछै कि थारू वास्तवमे सबसे पुरनका इतिहास भेल आदिवासी चियै ।

दोसर वात शान्तिके अग्रदूत गौतमबुद्ध थारू छेलै– कारण ओकर पहिनका सिद्धान्तके नाम ‘थेरवाद’ छेलै । जकर अर्थ पाली भषामे ‘थेरगाथा’ अर्थात् थारूके कथा हैछै । ऊ आपन पौहौनका सिद्धान्तके नाम ‘गौतम सिद्धान्त’ या ‘शाक्य सिद्धान्त’ राइख सकैछेलै लेकिन थारूवे हैके हैसियतसे ओइ सिद्धान्तके नाम ‘थेर सिद्धान्त’ राखने छै कैहैत एक प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् तेजनारायण पञ्जियार अडिग लेने छै ।

एक प्रसिद्ध चिनियाँ यात्री फहियानके अनुसार, सम्राट अशोक गौतम बुद्धके जाइत छेलै अर्थात् थारू छेलै जे आपन राजभैरमे चौरासी हजार स्तुप, धर्मशाला और शिलालेख निर्माण कैने छेलै । नेपाल भ्रमणके सिलसिलामे लुम्बिनीमे गौतम बुद्धके जन्मस्थलके निशानीके खातिर ई.पू. २५० मे एकटा स्तम्भ खडा करने छेलै जकरा अशोक स्तम्भके नामसे पुकारल जाइछै । महान् थारू सम्राट अशोक मौर्य वंशके संस्थापक सम्राट चन्द्रगुप्तके नाइत छेलै । ‘मौर्य’ शब्द अपभ्रंस भ्याके मौर बनलै जे थारूसब अखनियो वियाहके थनलग्गीमे लगाइछै और मुरमे मुरठ्ठा बाइन्हके आ हाथमे तलवाइर ल्याके राजसी ठाटबाठके साथ वियाह करै छै जे सम्राट अशोकके ठाटबाठ छेलै । ऐसे ई पत्ता चलै छै कि थारू नेपालके मात्र नै, भारतोके आदिवासी चियै ।

थारू भषा आ अकर ऐतिहासिकता

विश्वके कोनो भी भषा, कोनो खास जाइत या सम्प्रदायके चेतनाके सम्वाहक; साहित्य, संस्कृति और सभ्यताके निर्धारक तत्त्व चियै । आपन रीतिरिवाज, परम्परा और सभ्यताके जोगावैत; सहिष्णुता आ सहअस्तित्त्वके शान्तिके केन्द्रबिन्दु मानैत विभिन्न जाइत या सम्प्रदायसब आपने भषा, आपने कलाकौशल, आपने गीतसङ्गीत, आपने नृत्यनाटक आ आपने संस्कृतिके आधार मानैत आपन–आपन धार्मिक और सांस्कृतिक अवधारणा निर्धारण करैछै । तीन हजार वरिषसे बेसी ऐतिहासिकता बोकलाहा थारूके जरुर आपन भषा छेलै, जकर नाम छेलै थारू भषा जे शाक्यमुनि बुद्ध भिक्षुसबके उपदेश दैले प्रयोग करै छेलै ।

नेपालके सन्दर्भमे पूरवसे पक्षिमतक मधेश और भित्री मधेशके भागमे बसोबास करैवला थारूसबके भषा चियै । ई भषा भारोपेली परिवारके भारत इरानेली उप–परिवारके भारतेली या संस्कृत शाखाके पूर्वी और केन्द्रीय भेदसे अलग–अलग रूपसे विकास भेल छै । सम्राट अशोकके स्तम्भ और कपिलवस्तुमे प्राप्त भेल शिलालेखमे खोदलाहा अक्षर ब्रह्म लिपीमे लिखल छै जे थारूके आपन लिपी चियै । चाँगुनारायणके ऐतिहासिक शिलालेख थारू भषामे लिखल छै कैहके भषाविद् बालकृष्ण पोखरेल जनाइने छै । राजा जगज्योति मल्लके एक अभिलेखमे थारूसबके भषा पिछडल रहल उल्लेख छै । ललितपुरके चापागाउँस्थित राजा शिवदेव प्रथमके शिलालेखमे ‘स्थारू द्रङ’ शब्द उल्लेख भेल बातसे थारू जाइतके बसोबास लिच्छवीकालेसे देखल जाइछै । ई ऐतिहासिक दस्तावेजसे थारू भषाके ऐतिहासिकता प्रमाणित हैछै । वर्तमान समयमे थारू भषामे नटा प्रमुख क्षेत्रीय भेदसब रहल छै ।

इसब चियै–क) सप्तरिया थारू, (ख) दङ्गाली थारू, (ग) चितौनिया थारू, (घ) देशौरी थारू, (ङ) राना थारू, (च) देउखुरिया थारू, (छ) भौँरहिया थारू, (ज) नवलपुरिया थारू र (झ) सुनसरिया थारू । तैहनङ्गे मोरङगिया, कठौरिया आ महोत्तरिया थारूभषिका सोहो रहल विद्वान्सब बताइने छै । उपर देलगेल विवरणसबके अध्ययनसे थारू भषाके स्पष्ट मानक रूप निर्धारण नै भेलासे भषा साहित्य सेहो गुडकैनिया दैके अवस्थामे देखल जाइछै ।

थारू साहित्य

थारू भषा लोकसाहित्यमे बहुत धनिक छै । बरमसा लोकगित (१२ महिनाके चित्रण करैवाला), सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रके लोकगित सब प्रचलित छै । ऐ भषामे बहुत फोकरा (पहेली), कहवी, लोककथा प्रचलित छै । लोककथामे प्रेमके आभास, मङ्गल कामनाके भावना, मौलिकताके प्रधानता पावल जाइछै । जितमहान्, हरलता, सोरैठ नाचोके कथामे उपरका विशेषतासब भेटैछै । कहवीके अर्थ हैछै– जनसमुदायके कहनाइ । आपन कथनके पुष्टि करैके खातिर जीवनके हरेक डेगमे कहवीके प्रयोग करैछै । ऐमे व्यक्त भेल भाव सार्वभौम और सर्वकालिक हैछै ।

जनङ्ग– खाइलेलाई ने, पादैले मिठाई । मुसरीके जान ज्या, बिलाइके खेलौना ।
चमराके अह्रयाल चमैनियाँ, तकरे अह्रयाल महतबैनियाँ ।

फोकरामे जकरा फोकरा सुनाइछै, तकरा उत्तर दिए परैछै । अकर मूल उद्देश्य बुद्धि परीक्षण मानल जाइछै ।

जनङ्ग–अगुवा गेल छौडी पछुवा भेल, पाछुसे ताकलक त छौडीके ढिर भेल, कथी चियै ? – (रोटी)

कनिटा छौडीके ललका घघरी, कथी चियै ? – (मिर्चाई)

थारू भषा साहित्यके संरक्षण और सम्बद्र्धनके लेल भोलाराम चौधरी, महेश चौधरी, हृदयनारायण चौधरी और सप्तरीसे थारूभषा परिषद् अलग–अलग व्याकरण प्रकाशन करने छै । भषिक एकरूपता करैकेलेल फनि ‘श्याम’ थारू जुटल छै । गोपाल दहितसे लिखलगेल थारू शब्दकोशसे ऐ भषासाहित्यके विकासमे थप ऊर्जा मिलल छै ।

थारू लोक साहित्यके सङ्कलन आ प्रकाशन सबसे पहिने २०१६ सालमे बदरीनाथ योगी और रूपलाल महतो मिलके कैने छेलै जकर नाम ‘गुरुबाबाके जलमौती’ चियै । २०२० सालमे ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी गीत’, २०२४ मे ‘सखिया गीत’ प्रकाशन भेलै । ऐहै ढ्गङसे लोककथाके क्षेत्रमे भौनाराम चौधरीके ‘थारू बटकोही’ भाग–१ (२०६४), कृष्ण ‘सर्वाहारी’ के ‘मामाभाञ्जा’, भइुल चौधरी आ बुद्धसेन चौधरीके लेखन तथा सम्पादनमे प्रकाशित ‘जितिया पावैन’ (२०६३) प्रमुख मानल जाइछै ।

कहवीके क्षेत्रमे दिलिपकुमारके ‘कैहवी माला’, सियाराम चौधरीके ‘कैहवी सङ्ग्रह’, आदि प्रकाशित छै । स्व. रविलाल चौधरी ‘कानून मस्यौदा’ और ‘धुमरा नाचके गीत’ मिल्याके दुइटा किताब प्रकाशित करने छै । थारू भषामे अखैनतक प्रकाशित पत्रपत्रिका सब– ‘होली’(२०४२), ‘थारू संस्कार’ (२०४५), ‘विहान’ (२०४६), थारू कल्याणकाऋणी सभा मोरङ्गके तेह्रौँ स्मारिका (२०४७), टेंस’ (२०४८), ‘चिरखा’ (२०४८), ‘नेउता’ (२०४८), ‘जोगिनी’ (२०४८), ‘आँइख’ (२०४९), ‘गोम्हनिया’ (२०४९), ‘पहुरा’ (२०४९), ‘लव पूर्णिमा’ (२०५०), ‘भुरुकवा’ (२०५०), ‘मांगर’ (२०५०), ‘भइल भिनसहरा’ (२०५१), सप्तरीसे देवनारायण चौधरीके सम्पादनमे ‘सत्यके खोजी’ साप्ताहिक, रामलगन चौधरीके सम्पादनमे प्रकाशित ‘सत्य–तथ्य सङ्ग्रह’ (२०६६), आनन्दकुमार चौधरीके सम्पादनमे प्रकाशित ‘इजोत’ (२०६८) मासिक आदि चियै ।

थारूके संस्कृति

संस्कृति असल संस्कारके उपज चियै । रहनसहन, भेषभूषा, ब्रतबन्ध, धार्मिक अनुष्ठान, बोलीके लवज लगायत और चिजके समष्टिगत रूपके सांस्कृतिक सम्पदा कहल जाइछै । थारूसब संस्कृतिमे बेजोड धनिक मानल जाइछै । अनादिकालसे राजसी ठाटबाट हैतो पर भी आपन शुद्ध धनमे विश्वास करैछे, बहुत इमान्दार हैछै । भगवान गौतम बुद्धके पिता राजा शुद्धोधन शाक्य वंशके छेलै । ‘शाक्य’ शब्दके अर्थ हैछै सामर्थ्यवान और ‘शुद्धोधन’ के अर्थ हैछै शुद्ध धनमे विश्वास करैवाला महापुरुष । अर्थात् थारूसब आपन पुर्खाके शुद्ध धनके, इमान्दारीके संस्कार अपनाइने छै । ई बात सबके विश्लेषण करैत विद्यान्सब कहने छै– थारूवे संस्कार बुद्धिष्ट संस्कार चियै और बुद्धके जाइतके कोनो भी अवशेष छै त ऊ थारूवे हैके चाहिं ।

(१) थारूके खानपिन, रहनसहन और भेषभूषा

थारूसबमे खानपिनके अलगे संस्कार छै जे कोनो भी जाइतमे नैमिलै छै । सिरुवामे तेलपौर रोटी, पुसमे पुसीबगिया, माघी पर्वमे तिलुवा लडू, गुडखिचडी, तिलखिचडी, नेमानमे गुँरा (गुड और लवका धानके कुट्लाहा चौरके लेदो, जितियाके मरुवा और माछ लगायत हर्दम घोँघही, सितुवा, काँखोर, कौछ खाइवला पहिचानसे थारूके विशेष किसिमके जाइतसे चिन्हल जाइछै ।

तैहनङ्गे वोनजङ्गलके खुरहुर (खनिउँ, भाकडुमैर, कुसुम, केरा, आम, रिखिया, हलफा (पानीअमला), हैरा, बेहरा लगायतके फल और साग तरकारीमे तामा, कोइलार, छाती (च्याउ), जङ्गली कचु (कर्कलो) खाइमे बहुत माहिर हैछै । अतवे नै, वोनजङ्गलमे ज्याइके फन्ना (पासो जोइरके खरिया, तितिर, मेजुर, मुर्गी, सही (दुम्सी), हऋण, बँदेल सेहो माइरके खाइछै । थारू सम्प्रदायके कलियहाँ पन्थसब सब किसिमके माछमौस आ जाँडरक्सी खाइछै आ कुलदेवीके रूपमे पार्वतीके शक्तिस्वरूप कालीके पूजा करैछै । लेकिन महर्षिया पन्थके थारूसब प्राचीन कालमे मारकाट नै करैछेलै, माछमौस नै खाइछेलै । समयके परिवर्तनसँगे कुछ महर्षिया माछोमौस खाइले लागलै ।

थारूसब बहुत मिलनसार हैछै । मेजमानके देवतासमान मानैछै । आपन घरमे भेल्हा, आपने उब्जेल्हा चिज खाइेछै, खुवावैछै । किएक त ऊ सब पहिनसे भूमिपति छेलै । थारू महिलासब खास कैरके सारीसज्जा और बलौज लगावैछै । कुमारी कन्या कुर्ता, सुरुवाल, जामा, लगावैछै । औरतसब गहनाप्रिय हैछै । टाङ्गमे लगावैवला करा, छरा, ठेसा, नाकमे नथिया, ठोप, फुलिया, हिराकाँट, छौँक, कानेमे कनैली, कुण्डल, जोरमा सोन, एकहरिया सोन, माथामे सिथिया, मनटीका, गर्दनमे हौँसली, सिक्री, हाथमे कत्तरी, मोठा, चुइर आदि लगावैछै ।

(२) थारूके धर्म–संस्कृति, चाडपर्व आ नाच

थारूसब बौद्धधर्मी चियै । गोसाइँघरमे कोनो भी प्रकारके मूर्ति आ फोटो नै रहैछै । मात्रै माइटके छोटका छोटका ढिक्का–ढिक्किरहैछै । उसब बौद्धस्तुपके प्रतिक चियै । विजया दशमीमे समेत थारूसब टीका नै लगावैछै आ जमारा सेहो नै राखै छै ।

थारूसबके सबसे बडका परव जितिया चियै । दशैँके आसपासमे विवाहित नवयुवती और अधेर (प्रौढ) औरतसब लैहरामे ज्याके घेराके पतामे घेरेके फूल राइखके जितमहाङ्के पूजा करैछै । आपन–आपन धियापुताके चिरञ्जीवि, वीर, सकुशल, आनन्दित और प्रगतिशील हैके आकाङ्क्षा राखैत ई परव मन्याल जाइछै । ब्रतमे बैठैवाली औरतके ओटघन खेनाइ जरुरी हैछै । दोसर महत्वपूर्ण परव समाचकेवा चियै । ई पावैन भाइबहिनके प्रेमके प्रतीकके रूपमे मन्याल जाइछै । ऐ ठाम समाचकेवाके गीतके अङ्श प्रस्तुत करनाइ सान्दर्भिक ठहरैछै ।

भैया – कथिले कानैचिही हे बहिन, कथिले टुट्लो लैहरासे आश
घरघुइर चलहु हे बहिन, बाइटके देवो अधा राज ।

बहिन – बाबाके सम्पत्तिया हे भैया, बाटिजावाके हो आश
हम पर गोतनी हे भैया, मोटरियाके हो आश ।

भैया – घर लौट चलहु हे समा, बाबाके देव हम ज्ञान
तुहु जिन घुराबहे हो समा, नै तेजब परान ।

बहिन – जिन एहन करहु हे भैया, बाबाके हेतो बहुत बदनाम….।

सप्तरीके थारूसब समाचकेवा महोत्सव बढ्का हर्षोल्लासके साथ वर्षेनी मनावैछै । सिरुवा पावैन मनावैके सिलसिलामे चेतन लोकसब सबेरे उइठके स्नानध्यान कइरके लोटामे शुद्ध पाइन भरैछै । ई पाइन पीपर और शिराथानमे चढ्याके कङ्की लोकके माथामे छिटके आशीर्वाद दैछै आ बडका लोकके टाङ्गमे जल ढाइरके पीपरके गाछी नहाइत आदर करैछै । तहिनङ्ग किसिमसे माघ १ गते तिलके लडू, तिलखिचडी, गुडखिचडी और माछ ख्याके स्वतन्त्रताके प्रतीकके रूपमे तिलासङ्क्राइत मनाइछै ।

थारू संस्कृतिके झल्कावैवाला लोकनाच ‘धुमरा नाच’ चियै । अकरा थारू संस्कृतिके मौलिक नाचके रूपमे चिन्हल जाइछै । ई नाच थारू संस्कृतिके मुलभूत मान्यताके खबरदारी सोहो करैछै । और महत्वपूर्ण नाचमे चोरखेली, जाटाजाटिन, सोरैठ, झिझिया, बडकी नाच आवैछै ।

(३) थारूके वियाह आ मथमुरैन

थारूसबके वियाह बौद्ध संस्कारके ढङ्गसे हैछै । दुनु तरफके कुल खान्दान वर कन्याके पसिन क्याके दुनुतरफ घर देखहैछै । दुलहाके तरफसे शुभ–वियाह तय भेल कहिके कन्या पक्षके सुपाडी दैछै और वियाह सम्पन्न भेलाके वाद गम्छामे बन्हलाहा सुपाडी खोइलके समाजके खाइले दैछै । अकरा शुभ–वियाह सम्पन्नके प्रतीकके रूपमे लैछै । वियाह सम्पन्न करैके दुलहा–दुलहीके कोबरघरमे ल्याजाइछै । दुलाहाके रङ्गिन कोबरमे सिनुर दैले लगावैछै । कोबर बुद्धचक्रके अष्टाङ्गिक मार्ग चियै जे नव दम्पतीके अपनावैले कहैछै । आपन बच्चाके मथमुरैन (मुण्डन) करिब ६ महिनाके वादमे करेछै ।

उपसंहार

आदिवासीके गौरवशाली इतिहास बोकल थारू समुदायके स्पष्ट पहिचानके प्रमाण भेट्लो पर भी भषा, संस्कृति और साहित्यके विकासके सवालमे अखनियो धिएपुतेके अवस्थामे देखल जाइछै । थारू भषाके आधुनिकीकरण आ मानकीकरणमे जोड दैकेलेल थारू विद्वान्सब जुटनाइ अपरिहार्य देखल जाइछै । वर्तमान परिप्रेक्ष्यमे नेपालके दोग–दोगमे फैलल थारूसमेत नेपालके राज्य विस्तारके क्रममे विभिन्न राजा–रजौटा और अङ्ग्रेजसबके विरोधमे युद्ध करने छेलै । थारूलगायत नेवार, राई, लिम्बू, चेपाङ्ग, झाँगड, मगर, राजवंशी, थामी, तामाङ्ग, भुजेल, शेर्पाजखा आदिवासीसबके भषा, कला, संस्कृति नेपालीएके मौलिक संस्कृतिके रूपमे चिन्हल जाइछै । आपन मौलिक पक्षके जगेर्ना करनाइ सब नेपालीके दायित्व चियै । आपनजखा बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक, बहुभषिक, बहुधार्मिक मुलुकके चिनारीमे सैब समुदाय राष्ट्रिय भावनासे ओतप्रोत और एकताबद्ध भ्याके अगाडि बढनाइ जरुरी छै ।

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नेपालीमा भावानुवाद
(आदिवासी जनजाति उत्थान राष्ट्रिय प्रतिष्ठान ऐन २०५८ले आफ्नो मातृभाषा र परम्परागत रीतिरिवाज, छुट्टै सांस्कृतिक पहिचान, छुट्टै सामाजिक संरचना र लिखित वा अलिखित इतिहास भएको ५९ जाति वा समुदायलाई आदिवासी जनजाति मानेको छ । तिनै मध्ये थारु पनि पुरानो सांस्कृतिक पहिचान भएको आदिवासी हुन् ।

बुद्धलाई थारु मान्ने यिनीहरू बुद्धको समयभन्दा पहिलेदेखि मलेरिया रोगसँग लडेर तराईको मेचीदेखि महाकालीसम्म उब्जाऊ भूमिमा बसोबास गर्दै आएका छन् । बुद्धले भिक्षुहरुलाई उपदेश दिन्दा प्रयोग गर्ने थारु भाषाले तीन हजार वर्षभन्दा बढीको इतिहास बोकेको छ । अशोक स्तम्भ, चाँगुनारायण र चापागाउँको शिलालेख र विभिन्न अभिलेखमा प्रयुक्त लिपीले थारू भाषाको ऐतिहासिकता प्रमाणित हुन्छ ।

अधिकांश विद्वानका अनुसार भूगोलका आधारमा थारु भाषामा नौ वटा क्षेत्रीय भेद रहेको र एउटा स्पष्ट मानक रुप निर्धारण नभएकाले थारु भाषा साहित्य कमजोर अवस्थामा छ । थारू भाषा लोकसाहित्यमा धेरै धनी छ । थारु भाषा साहित्यको संरक्षण र सम्बद्र्धनका लागि अलग–अलग व्याकरण, शब्दकोश प्रकाशित छ । भाषिक एकरुपताका लागि फनि ‘श्याम’ थारू जुटेका छन् ।

थारू लोक साहित्य ‘गुरुबाबाके जलमौती’ को सङ्कलन र प्रकाशन सबैभन्दा पहिले २०१६ सालमा बद्रीनाथ योगी र रूपलाल महतो मिलेर गरेका थिए । क्रमश: गीत, लोककथा, कहवी, कानून मस्यौदा, र पत्रिकाहरू प्रकाशित हुन थाले । इमान्दार संस्कृतिका धनी थारूहरुको संस्कार बृद्धको संस्कार हो ।

थारूहरुको खानपिन, भेषभुषा र रहनसहन सबै अन्य समुदायभन्दा फरक छ । मिलनसार हुने थारूहरू अतिथिलाई देवतासरह स्वागत गर्छन् । बौद्धधर्मी थारूहरूको देवताघरमा मूर्ति वा फोटो हुँदैन् बरु बौद्धस्तुपको प्रतिक माटोको ढिस्का–ढिस्की हुन्छ । सबैभन्दा ठुलो पर्व जितिया, समाचकेवा, माघी, सिरुवालाई थारूहरुले महोत्सवकै रुपमा मनाउँदै आएका छन् । थारूहरुको विवाह बौद्ध संस्कार अनुसार हुन्छ ।

पुरानो गौरवशाली इतिहास भएपनि भाषा, संस्कृति र साहित्यको विकासमा थारु पछाडि परेका छन् । थारु भाषाको आधुनिकीकरण र मानकीकरणमा विद्वान्हरू एकजुट हुन आवश्यक छ । नेपालको राज्य विस्तारमा समेत योगदान पुर्याएका थारूलगायत आदिवासीहरुको भाषा, कला, संस्कृति नेपालीकै मौलिक संस्कृति भएकाले जगेर्ना गर्नु हामीहरुको दायित्व हो । बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक, बहुधार्मिक मुलुकको चिनारीमा सबै समुदाय राष्ट्रिय भावनाले ओतप्रोत र एकताबद्ध भएर अगाडि बढन जरुरी छ ।)

–अभितकुमार चौधरी
शिक्षा : स्नातकोत्तर (अंग्रेजी)
आबद्ध :– जिल्ला कार्यसमिति सदस्य, प्रगतिशील लेखक संघ, सप्तरी
आजीवन सदस्य, सगरमाथा साहित्य परिषद्,
मोबाइल नम्बर :– ९८०४७१७८५८

(लेखक, श्रीसुदनवती देवीलाल फूलमन्ती जनता माध्यमिक विद्यालय, सीतापुर–भुर्की, सप्तरीका शिक्षक हुनुहुन्छ ।)

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