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विविध भाषाका रचना

मेरे नेताजी ! (नेपालका गरिव नेताहरुको कथा ब्यथा) source face book

shantiram.dhakal — Fri, 11/18/2016 - 06:20

  • विविध भाषाका रचना
  • srdhakal
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मेरे नेताजी (नेपालका गरिव नेताहरुको कथा ब्यथा ) !!

ये वेचारे बहुत गरिव थे
गरिवी हटानेके लिए लड़ते रहे
गरिव जनताके नाम पे लड़ते रहे
वेचारे दिन रात ये लड़ते रहे
लड़ते लड़ते जिन्दगी भर
ये देशके गिनतीके अमिर बन गए
गरिव जनता और गरिव बन गए
अब भी ये बातों बातोंमे
जनताके लिए लड रहें है
वेचारे यिनकी जिन्दगी
पल पल जनताको लुटनेके लिए
कुर्वान है !
लुटो खुब लुटो
जिन्दगी लुट्नेके लिए है
एक बात मेरी तुमसे है
बस जनताके नाम पे ना लुटे
हम लोग जैसे है अच्छे है
हमारी गरिवी मत छिनो
हम जो है वो ही हैं
हमने बचना सिख लिया
दुख: मत करो हमारे लिए
ऐसी गरिवी मत हटाओ

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मैंने नहीं उतारी सलवार ( एक भारतीय महिला माओवादीको कविता )

shantiram.dhakal — Thu, 09/29/2016 - 11:15

  • विविध भाषाका रचना
  • दोपदी सिंघार (Dopadi Singhar)
  • फेसबुक

(एक भारतीय महिला माओवादीको कविता)
मैंने नहीं उतारी सलवार
रात भर थानेदार ने बैठा के रखा थाने में
फिर भी, मैंने नहीं उतारी सलवार ।
वो चीखा चिल्लाया, गला फाड़ा
पर मैंने भी कस के पकड़ रखा था नाड़ा
मैंने नहीं उतारी सलवार ।
चार दिन थाने में रही,
लटकी रही सिर पे तलवार,
पर मैंने नहीं उतारी सलवार ।
थाने से छूटी तो सीधे जंगल गयी,
वहाँ कामरेड थे, उनसे धरी गयी,
मैं अकेली, वो थे चार,
उन ने तार तार कर दी सलवार ।
थानेदार तो पराया था,
पर ये सब तो अपने थे
नक्सली आंदोलन को ले के,
क्या क्या देखे सपने थे,
सब सपने हुए तार तार,
जब अपने ही कामरेडों ने,
खींच के उतारी सलवार...!! "

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चुन्नी-मुन्नी (लघुकथा)

एकदेव — Tue, 08/04/2015 - 23:50

  • विविध भाषाका रचना
  • हरिबंश राय बच्चन
  • सरस्वती १९३२ ई.

मुन्नी और चुन्नी में लाग-डाट रहती है । मुन्नी छह बर्ष की है, चुन्नी पाँच की । दोनों सगी बहनें हैं । जैसी धोती मुन्नी को आये, वैसी ही चुन्नी को । जैसा गहना मुन्नी को बने, वैसा ही चुन्नी को ।

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कुकडु कु (लघुकथा)

एकदेव — Thu, 07/24/2014 - 15:42

  • विविध भाषाका रचना
  • एकदेव अधिकारी
  • लघुकथा साहित्य

‘कुकडु कु!’ मुर्गा बाँग लगाकर लौटता हुआ मुर्गी को बोलने लगा, ‘देखा भाग्यवान! मेरे ही कारण इन सब लोगोँ के काम बनते हैँ। नीँद में मस्त इन मूर्खों को समय का महत्त्व का क्या पता।’

‘हाँ, हाँ तुम्हारे ही कारण यह सब चलता है। सुबह की थोडी सी झपकी भी लेने नहीं देते।’ मुर्गी गुस्से से झुँझलाई।

‘और क्या? और सुनती हो? सूरज भी मेरे बाँग लगाने से ही उगता है,’ मुर्गा गर्व से फुदकता हुआ बोला।

‘ज्यादा मत फुदको। लोगों के भोजन बनोगे, फिर पता चलेगा,’ मुर्गी उसको समझाने लगी।

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दुश्मन (लघुकथा)

एकदेव — Mon, 12/16/2013 - 20:17

  • विविध भाषाका रचना
  • एकदेव अधिकारी
  • लघुकथा साहित्य

मेजर साहब का सबसे बडा दुश्मन था वह। उसने मेजर साहब की रातों की निंद और दिनोँंका चैन सब छिन लिया था। देर रात तक उसी के आवाज के कारण वह अच्छी तरह सो भी नहीं सकते थे । दिनभर भी उसी की सोच उन की दिनचर्या को प्रभावित करती थी।

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