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शहर

हर गल्लि मे ठोकर खाए
उस ठोकर से साज सजाए
ढुढँता हुँ मै एक मुसाफिर
किल्लत कि जो ताज सजाए

वो डेरा वो घर है मेरा
गल्ली मोहोल्ला सोर सवारा
ढुढँता हुँ मै एक मुसाफिर
कहिँ छिपा है ओ आवारा

नङ्गे पाव जो आगे बढाए
भुखे पेट कभि ना हारा
ढुढँता हुँ मै एक मुसाफिर
दिपक है ओ एक सितारा

नङ्गे पैरो चुभेङ्गे काटा
बढ्ता रहेगा भुखा प्यासा
ढुढँता हुँ वैसा एक मुसाफिर
जो गाएगा एक वीर कि गाथा

मेरा रास्ता सहज नहि है
पर जो मिल्ता वो कहि नहि है
आवो ढुढों मुझ मे समाजा
खोलता हुँ मै रोज दरवाजा

 

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